गजल-रुबाई - श्री शिवप्रसाद 'किरण' | Gazhal-Rubāi - Shri Shivaprasad 'Kiraṇ'

 कबहूँ कंगना कटार बन जाला
कबहू पतझड़ बहार बन जाला

आग लागेला जब पिरीतिया के
छोटको रतिया पहाड़ बन जाला

गीत हमनी रचीला सपना के
कबहूँ सपनों सकार बन जाला

मन के भँवरा के दोस काहे दीं
रूप खुद ही शिकार बन जाला

हमके देखीं न फेर के मुखड़ा
कबहूँ धनिको भिखार बन जाला

गीत गाई न दर्द से मातल
आह दिल के पुकार बन जाला

कबहूँ हीरा रहे ला माटी में
कबहूँ जग के सिंगार बन जाला

मन के रिस्ता लगेला जब मन से
हर घड़ी इन्तजार बन जाला

लोर टपकेला जब बदरिया के
खेतवे अँगना दुआर बन जाला

नेह लागे ला जब गरीबी से
आत्मा गीतकार बन जाला


रुचाई

चाँद के रुपैया असमनवा लुटावे
कि चाँदनी लुटावेली — अँजोर
सोनवा लुटावेला भोर के सुरुजवा
कि लिहली धरतिया — बटोर

X X X

बाट जोहे में सगरो रात भईल
लौट अरमान के बरात गईल
हम त रहनी डगर निहारे में
चाँदनी पीके रात मात' गईल्

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