कुहुकलि कोयल - श्री लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी | Kuhukali Koyal - Shri Lakshmishankar Trivedi

कुहुकलि कोयल भोर रे !
खुलल भोर के द्वार,
उषा के बंसी बजल सजोर रे।

कारी अधियारी रतिया में,
मनवाँ बहुत डरायल।
दूर देस में पिया बसेरा,
पाती एक ना आयल।

सुधि आवे जब-जब हियरा में,
भरि-भरि आवे लोर र॥  बँसी बजल सजोर रे॥

रहि-रहि पलक कचहुँ लगि जावे,
सपना में केहू भरमावे।
मनवाँ उड़े साँस के रथ पर,
लबटि-लबटि फिरि आवे॥

एइसन फँसल मोह के पिंजरा,
निनिया भयल अथोर रे॥ बंसी बजल सजोर रे॥

चन्दा नाचे, तरई नाचे,
नाचे प्रान, पखेरू।
जोगी नाचे, जंगम नाचे,
मिटल न हिय के फेरू।

उड़ि-उड़ि गइले नभ के द्वारे,
मिलल न सजग अंजोर रे॥ बंसी बजल सजोर रे॥

फुलवा फुनगी पर मुसुकायल,
बदरा देखि भोर अगरायल,
हँसि-हँसि जरल पतंग दीप पर
मोती बनि छितरायल।

पी-पी, पी-पी पपिहा बोलल,
कुडुकलि कोयल भोर रे॥ बंसी बजल संजोर रे।

सुकवा उगल किनार सजायल,
ललका लमहर चउक पुरायल,
दखिन देस के मिलल सनेसवा,
हरिअर साज सजायल।

सजि-सजि खेले किरन-किरन से, सपन टूटल ना तोर रे॥
खुलल भोर के द्वार, उया के बंसी बजल सजोर रे॥ 

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